हिन्दू : जीने का समृद्ध कबाड़' 'हिन्दू' शब्द के असीम और निराकार विस्तार के भीतर समाहित, अपने-अपने ढंग से सामाजिक रुढियों में बदलती उखड़ी-पुखड़ी, जमी-बिखरी वैचारिक धुरियों, सामूहिक आदतों, स्वार्थो और परमार्थो की आपस में उलझी पड़ी अनेक बेड़ियों-रस्सियों, सामाजिक-कौतुबिंक रिश्तों की पुख्तगी और भंगुरता, शोषण और पोषण की एक दुसरे पर चढ़ीं अमृत और विष की बेलें, समाज की अश्मिभूत हायरार्की में साँस लेता-दम...