दो वर्ष भारत-भर में और अनन्तर तीन वर्ष विश्व-भर में उनका परिभ्रमण उनकी स्वतंत्र स्वाभाविक चेतना और सेवा-भावना का सहज ही यथेष्ट पूरक सिद्ध हुआ। वह घर-समाज के बन्धन से मुक्त, स्वच्छन्द, ईश्वर के साथ निरन्तर अकेले घूमते रहे। उनके जीवन का कोई क्षण ऐसा न था जिसमें उन्होंने ग्राम में, नगर में, धनी के, निर्धन के जीवन-स्पन्द की वेदना, लालसा, कुत्सा और पीड़ा से साक्षात् न किया हो। वह जन के जीवन से एकाकार ह...